Thursday 31 December 2015

तू जहाँ जहाँ रहेगा.... भाग 5 ~~ by a s pahwa




कुछ पलों की नीरव परन्तु दमघोंटू चुप्पी के बाद अचानक ही राधिका के शरीर ने एक जुम्बिश ली और जोर-जोर से अपने हाथ-पाँव पटकने शुरू कर दिए । फिर एकाएक ही उसने अपने दोनों हाथों को फर्श के सामान्तर खोला और अपनी पूरी शक्ति से अपने हाथों को आगे-पीछे ज़ोर से लहरा कर पीछे दिवाल की तरफ पटका। इतनी शक्ति थी


उसके भीतर कि उसके एक तरफ बैठी उसकी माँ को राधिका के पीछे जाते हाथ ने ज़रा सा छुआ भर और वह अपनी जगह से पीछे जा गिरी! राधिका के दोनों हाथ पूरी ताकत से दीवाल से जा टकराए। यह टक्कर इतनी जबरदस्त थी कि एक झटके में ही उसके दोनों हाथों में कलाइयों तक चढ़ी हुई चूड़ियाँ टुकड़े-टुकड़े हो बिखर गई। उसका सिर ज़ोर- जोर से कभी दाएँ-बाएँ हिलता तो कभी गोल-गोल दक्षिणावर्त या फिर वामावर्त घूमने लगता। साँसे किसी लुहार की ढोंकनी की मानिंद तेजी से चलने लगी। मुँह से झाग निकलने के साथ-साथ खरखराहट भरी कुछ आवाज़ें उभरने लगी। आँखे लाल सुर्ख़ हो चुकी थी और इस प्रकार खुली हुई थी जैसे अभी अपनी कटोरी से बाहर ही निकल पड़ेंगी। पूरे शरीर का गौर वर्ण रक्त के लाल रंग की भाँति धधकने लगा था।

एकदम डरावना मन्ज़र हम सब की आँखों के सामने था, सभी की हालत काटो तो खून नही वाली थी, जो कुछ हमारी आँखों के सामने था, एकदम साक्षात् था परन्तु किसी में इतना साहस नही था कि इसमें कुछ हस्तक्षेप कर सके। बस, केवल एक निर्जीव पुतले की तरह हम सब भी इस घटनाक्रम को देखने को विवश थे, भीतर से भयभीत सभी थे परन्तु किसी में इतनी हिम्मत की गुंजाईश  भी नहीं बची थी कि उठ कर बाहर तक जाने की भी सोच सके !

कुछ क्षण तक यही दृश्य चलता रहा... फिर धीरे-धीरे जैसे ही राधिका के शरीर की शक्ति कम होती गई, वह निढाल हो यूँ ही फर्श पर बैठे-बैठे ही नीचे गिर गई। हाज़ी साहब जो अभी तक चुपचाप बैठे सारे घटनाक्रम पर नज़र रखे हुए थे उन्होंने हमे इशारा किया कि जल्दी से टूटी हुई सभी चूड़ियों के टुकड़ों को बीन लो और कमरे से बाहर डाल दो। कोई भी नुकीली अथवा तेज चोंच वाली वस्तु इसके आसपास न रहे। जैसे ही यह कार्य पूरा हुआ, उन्होंने अपने मन ही मन कुछ बुदबुदाना शुरू किया और एक बर्तन में से जल की कुछ बूँदें राधिका के ऊपर डाली। उन बूँदों के स्पर्श मात्र से ही राधिका एकदम चिहुँक कर उठ बैठी और किसी अस्पष्ट सी भाषा में ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला-चिल्ला कर अपने हाथ पैर पटकने लगी।

हाज़ी साहब ने अब उससे सीधा ही सम्बोधित होना शुरू किया.... "शान्त हो जा, शान्त हो जा....  बाहर आ कर बात कर, बाहर आ जा.... छोड़ दे इस बच्ची को..."
हाज़ी साहब बार-बार इन शब्दों को दोहराते जा रहे थे। धीरे धीरे जैसे राधिका ने इन शब्दों को सुनना शुरू कियाउसके घने और काले लम्बे बाल जो शुरू में एक चोटी की  शक्ल में थे, अब तक खुल कर उसके पूरे चेहरे पर फ़ैल चुके थे। उसने एक झटके से अपने चेहरे पर से इन बालों को हटाया और उसके मुख से एक अलग ही प्रकार की गुस्से और नफ़रत से भरी हिंसक आवाज़ पूरे कमरे में प्रतिध्वनित हुई।
"
क्यूँ जाऊँ? यह मेरा घर है! तूँ चला जाएगा अपना घर छोड़ कर?"

हाज़ी साहब बेहद शाँत और संयत स्वर में बोले, " आप बाहर आ जाइये, शाँत हो जाइये, बात कीजिये, अपने बारे में बताइये, सब सुनूँगा पर पहले बाहर आइये!"
राधिका के मुख से फिर उसी तरह ही तिरस्कार भरी आवाज़ निकली, " क्यूँ छोड़ूँ? अब यह मेरा घर है! आज से नही हूँ, पाँच साल से इस घर में हूँ! तूँ किसी के कहने से अपना घर छोड़ देगा!"


इन बदतमीजी भरे जवाबों का भी हाज़ी साहब पर किंचित मात्र भी कोई प्रभाव नही पड़ा, वह पहले की ही भाँति बेहद शाँत और सयंत थे, एक बार फिर उन्होंने मुस्कराते हुए बेहद कोमल शब्दों में कहा, " हमने कब इन्कार किया कि आप इतने बरसों से इस घर में नही हैं, पर यह घर आपका नहीं है, केवल ज़बरन आपने कब्जाया हुआ है। इतना तो अभी तक आपको भी समझ आ ही गया होगा कि इस जगह से अब आप बच कर नहीं जा सकते। आपको चारो तरफ से जकड़ लिया गया है। इसलिए अच्छा है क्यूँ न हम आराम से बात करें! नहीं तो समस्या आप को ही होगी!"
"
क्यूँ छोड़ूँ और क्यूँ बात करूँ? क्यूँ ? अब तो मैं यहीं रहूँगी हमेशा हमेशा के लिए अपने पति के साथ... फेरे लिए हैं मैंने किशन से! यह अब मेरा हमसाया है, इसलिए ये जहाँ रहेगा, मै इसके साथ ही रहूंगी... और जरा मुझे यह बता कि क्या किसी के कहने से तेरी बीबी तुझे छोड़ देगी !" राधिका के मुँह से नफरत और तिरस्कार भरा वाक्य निकला !
यानि जो भी चीज़ थी वो स्त्री थी, वो उस समय भी राधिका के भीतर थी, जब राधिका और किशन के शादी के फेरे हुए... राधिका के साथ साथ उसने भी फेरे ले लिए, इसलिए वो खुद को भी किशन की पत्नी समझ अब पूरे अधिकार के साथ राधिका के भीतर थी।


हाज़ी साहब ने हवा में अपना हाथ अपने सिर से कुछ ऊँचा उठायाकोई आयत पढ़ी... अपना हाथ हवा में लहराया और मुख से बोले, " साबिर साहब, मैंने तो बहुत समझा लिया... अब ज़रा आप ही देखिए इसे!"

एकाएक ही राधिका का शरीर यूँ तड़पा जैसे किसी ने गर्म लोहे से दाग दिया हो, एक बेहद मार्मिक और दर्द भरी चीत्कार पूरी फ़िज़ां में तैर गई।उसने बुरी तरह से तड़फ़ना और चिल्लाना शुरू कर दिया! कुछ क्षण इसी प्रकार लोमहर्षक  मंज़र रहा... फिर शने-शने जैसे ही राधिका का क्रंदन कुछ कम हुआ, हाज़ी साहब ने फिर उसी नरम लहज़े में पूछना जारी रखा... अब बताइये कौन है आप?

"मैं, रुखसाना(परिवर्तित)... इसके पड़ोस वाले गाँव के ज़ुबेद(परिवर्तित) की लड़की!"

ज़ुबेद का नाम सुनते ही राधिका की माँ का माथा ठनका, स्मृतिओं से धूल हटते ही उस को याद आया कि हाँ उसकी एक लड़की थी, जो कई बरस पहले एकाएक ही लापता हो गई थी, तमाम कोशिशों के बाद भी जिसका बाद में कुछ पता नही चल पाया था। कुछ समय तक गाँव में काना-फ़ूसीओं का दौर चलता रहा और लोग चटखारे लेकर तरह तरह की बातें बनाते रहे, परन्तु फिर बीतते समय के साथ सब उसे भूल गए जैसे कि उसका कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं था। और फिर आज अचानक, वही रुख़साना उसकी बेटी के भीतर मौजूद थी !
मगर इस सबसे बेपरवाह, हाज़ी साहब अपने ही तरीकों से उस गुफ़्तगू को आगे बड़ा रहे थे, "अच्छा फिर बता तेरा इंतकाल कैसे हुआ था?"

"गाँव के ही लफ़ंगे अब्दुल और जितेश(नाम परिवर्तित) की उस पर बुरी नज़र थी। एक दिन उन्होंने धोखे से उसे गाँव के बाहर खेतों की तरफ बुलाया और उससे बदतमीज़ी शुरू कर दी। मामले की नज़ाकत और उनके इरादे समझते ही मैं किसी तरह से अपनी जान छुड़ा कर भागी और बचते बचाते जब चौधरियों के खेत की तरफ से भाग रही थी, बदहवासी में पता नहीं किस प्रकार मुझे ठोकर लगी और मैं खेत में बरसों से बन्द पड़े ट्यूबवेल के कुएं में जा गिरी, काफी नीचे लोहे के दो ऐंग्लो के ऊपर एक मोटर टिकी हुई थी, उस पर गिरते ही मेरा  सिर फट गया और प्राण पखेरू उड़ गए। ट्यूबवेल की दीवारें क्यूँकि अब जर्जर अवस्था में थी, अतः अकस्मात इस झटके से जँग लगा एंगल टूट कर नीचे गिर गया और उसने तथा उस पर रुकी मोटर के वज़न ने कुछ इस तरह से मेरे शरीर को दबा दिया कि फूलने के बाद भी मेरी लाश नीचे ही फंसी रह गयी, और फिर इस तरह मेरी अकाल मृत्यु भी महज़ एक गुमशुदगी में बदल कर रह गई।
वक्त गुजरा और मुझे यह जानकर बहुत सदमा लगा कि मेरे कातिलों की तरफ किसी की तवज्जो ही नही थी, और पूरा गाँव मुझे ही बदचलन ठहरा चटखारे ले रहा था।
पहले पहल तो मुझे कुछ समझ ही नही आया कि मैं कौन सी दुनिया में हूँ, मैं सभी को देख पा रही थी, सुन पा रही थी, पर किसी को अपनी उपस्थिति का भान नहीं करवा पा रही थी, बहुत ही पीड़ादायक स्थिति थी, पर फिर धीरे धीरे मुझे अपने ही जैसे कुछ और लोग मिले, उन सब की भी अपनी अपनी कहानियाँ थी। पर अब किया ही क्या जा सकता था। अब्दुल और जितेश कुछ दिन तो मेरे यूँ लापता हो जाने से ख़ौफ़ज़दा रहे, पर शीघ्र ही सामान्य हो गए। परन्तु मैं अपने इन कातिलों को भला यूँ कैसे भूल सकती थी? उनसे बदला तो मुझे लेना ही था, पर कैसे? इसका रास्ता भी मेरे मित्रों ने बताया। एक दिन जब अब्दुल अपने दोस्तों के साथ जोहड़ में नहाने जा रहा था, मौका देख मैं उनमे से किसी एक के जिस्म में दाखिल हो गई और अब्दुल को पानी में ही डुबो कर मार डाला। जितेश के तो मैं खुद ही अंदर दाखिल हो गई और उससे आत्महत्या करवा दी। और फिर इस तरह अपने दोनों कातिलों की मौत के साथ ही मेरा इंतकाल पूरा हुआ और मुझे कुछ सुकून हासिल हुआ।" सूनी निगाहों और सफेद पढ़ चुके चेहरा लिए राधिका किसी निर्जीव पुतले की तरह यह सब बोलती जा रही थी!
हम सब जो चुपचाप यह सुन रहे थे, जैसे ही हमने राधिका की माँ को इन घटनाओं की पुष्टि में अपने सिर हिलाते देखा, साफ़ साफ़ अपने माथे पर घबराहट के मारे चुचुहाती हुई पसीने की बूँदों को महसूस कर पा रहे थे, पर न कुछ बोल पाने की स्थिति में थे और न ही हमारे शरीर में इतना साहस बचा था कि उस जगह से उठ कर बाहर आ पाते!
मगर हाज़ी साहब के लिए यह सब रोज़मर्रा की बातें थी, अतः इस सब से बेपरवाह उन्होंने उसी सधे परन्तु बेहद दृढ़ अन्दाज़ में अपनी बात जारी रखी, " ठीक है, तुम्हारे साथ नाइंसाफ़ी हुई, अल्लाह के फ़ज़ल से उन्हें सज़ा भी मिल गई, पर इस बच्ची का कोई कसूर नही, इसलिए  आपके और आपके साथियों को इसे छोड़ना ही होगा। क्यूँकि इतना तो अब आपको मालूम ही है कि अब आपके सामने और दूसरा कोई चारा नही। अब ज़रा आप अपने इस हथिआये घर को  खाली कर दें तो मैं ज़रा उनसे भी बातचीत कर लूँ।"
कुछ देर शान्ति रही, फिर एक एक कर दो नए रूप राधिका के शरीर में आए, उनसे भी इसी प्रकार की बाते हुई। मगर वो दोनों अपेक्षाकृत कमज़ोर थे अतः तुरन्त ही हाज़ी साहब की बात मान राधिका का शरीर छोड़ने पर राज़ी हो गए। इधर, इस सब घटनाक्रम से राधिका की हालत बेहद कमज़ोर हो चुकी थी अत: हाज़ी साहब ने कहा, बस आज के लिए इतना बहुत है, इसे और ज्यादा तंग करने पर बच्ची के दिमाग पर असर हो सकता है। यह मामला शादी की वजह से कुछ टेड़ा है, क्यूँकि राधिका की ही भाँति रुख़्सार भी किशन को अपना पति ही मानती है। अतः हमे चार-पाँच बैठकें और करनी होंगी और उसे समझाना होगा और फिर आखिर में एक बार साबिर साहब की दरगाह पर भी जाना होगा क्यूँकि आखिरी कोर्ट ऑफ जजमेन्ट वहीँ है।

हाँ, इतना जरूर है कि अब यह रूह इसे परेशान नही करेगी, मैने फौरी तौर पर इसका उपाय कर दिया है। साथ ही उन्होंने कुछ चीजें राधिका के लिए दी, जिसे उसे अपने पास ही रखना था, एक शीशी में कुछ अभिमन्त्रित जल जिसकी कुछ बूँदे उन्हें प्रतिदिन अपने घर एवं आस-पास छिड़कनी थी !

अब समय आ गया था जब हम सबने माथा टेका और वहाँ से विदा ली, यहाँ का काम तो अब परिजन करवा ही लेंगे, परन्तु साबिर साहब की दरगाह पर हमने भी साथ चलना है, इस सहमति के साथ परन्तु अपने मन में उमड़ते ढेर सारे प्रश्नों और शंकाओं, जिनका अभी भी समाधान नही हुआ था, के साथ हमने भी उन सबसे विदा ली..... जारी       

No comments: